बाल एवं युवा साहित्य >> सरला, बिल्लू और जाला सरला, बिल्लू और जालामुद्राराक्षस
|
3 पाठकों को प्रिय 59 पाठक हैं |
आयु वर्ग: 5+ बच्चों के लिए मनमोहक कहानी-संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नाश्ते से पहले
सुबह जब सीता नाश्ता करने बैठी तो उसने देखा कि उसका बाबा हँसिया लेकर
कहीं बाहर जा रहा है। ताज्जुब से सीता ने माँ को टोका, ‘‘माँ,
बाबा इस वक्त हँसिया लेकर कहाँ जा रहे हैं ?’’
‘‘बाड़े में जा रहे हैं।’’ माँ ने जवाब दिया, ‘‘सूअर ने कल राते में बच्चे दिये थे।’’
‘‘लेकिन इसमें वहाँ हँसिया का क्या काम?’’ सीता ने पूछा। वह अब लगभग आठ साल की हो चली थी। काफी कुछ समझने भी लगी थी।
माँ बोली, ‘‘अरे, उन बच्चों में एक तो बिल्कुल ही मरियल है। वह बहुत छोटा और कमज़ोर है। उसके जिन्दा रहने-न-रहने से कोई फ़ायदा नहीं है। इसीलिए तुम्हारे बाबा ने सोचा कि उसे मार दिया जाये।’’
‘‘’मार दिया जाये? सीता चौंक पड़ी, ‘‘क्या सिर्फ उसे इसीलिए मार डालना चाहिए कि वह बहुत छोटा और कमज़ोर हैं?’’
माँ ने चावल के मांड में चीनी डालकर एक कटोरी सीता के सामने रखते हुये कहा, ‘‘इसके लिए तुम्हें चिल्लाने की जरूरत नहीं है। बाबा ठीक ही तो कह रहे हैं। सूअर का वह बच्चा आखिर मर ही तो जायेगा!’’
सीता ने बैठनेवाला पीढ़ा एक ओर सरका दिया और उठकर दरवाजे़ के बाहर भागी।
घास भीगी हुई थी और धरती से वसन्त की सोंधी-सोंधी गन्ध उठ रही थी। दौड़कर बाबा तक पहुँचते-पहुँचते उसकी नन्हीं-सी घाघर कोरें भीग गयीं।
उसने रोते-रोते पुकारा, ‘‘बाबा, बाबा ! उसे मत मारो। यह बहुत बुरी बात है, बाबा !’’
उसका बाबा रुक गया, ‘‘क्या हुआ, सीता ? आखिर तुझे अक्ल कब आयेगी ?’’
सीता चिल्लाई, ‘‘अक्ल ? वहाँ तो मरने-जीने का सवाल है और तुम अक्ल की बातें कर रहे हो !’’ उसके गालों पर आँसू लुढ़कने लगे। उसने दौड़कर बाबा के हाथ की हँसिया पकड़ ली और छीनने लगी।
बाबा ने समझाया, ‘‘देखो बेटा, मैं तुमसे ज्यादा जानता हूँ कि नन्हें सूअरों को कैसे पाला जाता है। कमज़ोर बच्चे बड़ी परेशानी पैदा करते हैं। बस जाओ, अब भाग जाओ !’’
‘‘लेकिन यह बुरी बात है, बाबा !’’ सीता रोती हुई बोली, ‘‘इसमें सूअर के बच्चे का क्या दोष है कि वह छोटा पैदा हुआ ? कोई दोष दीखता है तुम्हें ? मैं ही जब पैदा हुई थी तब अगर बहुत छोटी और कमजोर होती तो क्या तुम मुझको मार डालते ?’’
बाबा ने उसकी ओर प्यार से मुस्कराकर कहा, ‘‘नहीं, कभी नहीं। लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है। नन्ही बेटी अलग चीज़ होती है और वह सूअर का कमज़ोर बच्चा अलग चीज़ है।’’
‘‘लेकिन मुझे तो इसमें कोई फर्क नहीं लगता!’’ सीता ने बाबा के हाथ की हँसिया छीनने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘यह तो बहुत ही भयानक अन्याय है, बाबा!’’
बाबा का चेहरा विचित्र भावों से आच्छादित हो गया। वह स्वयं अपने में ही रुआँसा-सा हो आया।
‘‘ठीक हैं !’’ अन्तत: बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा, तुम तो अब घर चलो, मैं उस मरकुट को लेकर आता हूँ। अब तुम्हें ही उसे शीशी से दूध पिलाना होगा, बच्चों की तरह। तभी तुम जानोगी कि इस तरह के सूअर के बच्चे से कितनी परेशानी होती है।’’
आधे घण्टे बाद जब बाबा लौटे तो उनकी बग़ल में एक दफ्ती का डिब्बा दबा हुआ था। सीता अन्दर उस वक्त अपने कपड़े बदल रही थी। रसोई में सुबह का नाश्ता तैयार हो चुका था। तले हुये चने और चाय की महक फैल रही थी। दीवारों की सीलन और चूल्हे की लकड़ी के सुलगते हुये धुएँ की महक हवा में भरी हुई थी।
बाबा ने कहा, ‘‘इसे सीता के ही खटोले में डाल दो।’’
सीता की माँ ने उस डिब्बे को सीता के खटोले में ही रख दिया। बाबा ने आँगन में आकर पानी से अपने हाथ धोए और अंगोछे में पोंछ लिए। सीता धीरे-धीरे कोठरी से बाहर आयी। रोने से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। अचानक दफ्ती का डिब्बा हिलने-डुलने लगा और फिर उसमें से चिचियाने की आवाज़ आयी। सीता ने अपने बाबा की ओर देखा और लपककर डिब्बे का ढकना उठा लिया। उसके अन्दर सूअर का ताजा पैदा हुआ हुआ बच्चा सीता की ओर टुकुर-टुकुर ताकता हुआ बैठा था। वह सफेद था, सुबह की रोशनी उसके कानों पर पड़ रही थी और वे गुलाबी-से हो रहे थे।
‘‘अब यह तुम्हारा है !’’ बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ कि वेवजह मरने से बच गया। भगवान्, इस मूर्खता के लिए मुझे क्षमा कर !’’
सीता उस नन्हें-से सूअर के बच्चे की ओर से अपनी आँखें नहीं हटा पा रही थी। बच्चा बहुत खूबसूरत लग रहा था।
सीता ने जैसे अपने-आप ही कहा, ‘‘कितना सुन्दर लग रहा है ! बहुत ही खूबसूरत !’’
उसने डिब्बे को सावधानी से बन्द कर दिया। इसके बाद उसने अपने बाबा को प्यार किया और फिर अपनी माँ को और तब डिब्बे का ढकना दुबारा खोला। उसके अन्दर से बच्चे को बाहर निकालकर अपने गालों से सटा लिया।
इसी समय उसका भाई अन्दर आया। वह कई हथियारों से लैस था-एक हाथ में गुलेल थी और दूसरे में छड़ी और कमर में लकड़ी की धज्जी की बनाई हुई तलवार।
‘‘वह क्या है ?’’ अप्पू ने ललकारा, ‘‘सीता के हाथ में क्या है ?’’
‘‘उसका एक मेहमान है !’’ माँ ने कहा, ‘‘अप्पू, तू हाथ धो ले और मुँह भी। कितनी धूल लग रही है !’’
‘‘लाओ मैं देखूँ !’’ अप्पू ने अपनी गुलेल रखते हुये कहा। फिर नज़दीक से देखकर बोला, ‘‘अरे, यह भी कोई सूअर है ! इसी मरियल को सूअर कहते हैं ! वाह, बहुत ही बढ़िया नमूना है सूअर का ! यह तो सफेद चूँहे के बराबर है।’’
‘‘अप्पू मुँह-हाथ धो ले और नाश्ता कर ले आकर!’’ माँ ने कहा, ‘‘फिर तुझे स्कूल भी तो जाना होगा।’’
‘‘बाबा, क्या तुम मुझे भी एक बच्चा नहीं दोगे?’’ अप्पू ने कहा।
‘‘बाड़े में जा रहे हैं।’’ माँ ने जवाब दिया, ‘‘सूअर ने कल राते में बच्चे दिये थे।’’
‘‘लेकिन इसमें वहाँ हँसिया का क्या काम?’’ सीता ने पूछा। वह अब लगभग आठ साल की हो चली थी। काफी कुछ समझने भी लगी थी।
माँ बोली, ‘‘अरे, उन बच्चों में एक तो बिल्कुल ही मरियल है। वह बहुत छोटा और कमज़ोर है। उसके जिन्दा रहने-न-रहने से कोई फ़ायदा नहीं है। इसीलिए तुम्हारे बाबा ने सोचा कि उसे मार दिया जाये।’’
‘‘’मार दिया जाये? सीता चौंक पड़ी, ‘‘क्या सिर्फ उसे इसीलिए मार डालना चाहिए कि वह बहुत छोटा और कमज़ोर हैं?’’
माँ ने चावल के मांड में चीनी डालकर एक कटोरी सीता के सामने रखते हुये कहा, ‘‘इसके लिए तुम्हें चिल्लाने की जरूरत नहीं है। बाबा ठीक ही तो कह रहे हैं। सूअर का वह बच्चा आखिर मर ही तो जायेगा!’’
सीता ने बैठनेवाला पीढ़ा एक ओर सरका दिया और उठकर दरवाजे़ के बाहर भागी।
घास भीगी हुई थी और धरती से वसन्त की सोंधी-सोंधी गन्ध उठ रही थी। दौड़कर बाबा तक पहुँचते-पहुँचते उसकी नन्हीं-सी घाघर कोरें भीग गयीं।
उसने रोते-रोते पुकारा, ‘‘बाबा, बाबा ! उसे मत मारो। यह बहुत बुरी बात है, बाबा !’’
उसका बाबा रुक गया, ‘‘क्या हुआ, सीता ? आखिर तुझे अक्ल कब आयेगी ?’’
सीता चिल्लाई, ‘‘अक्ल ? वहाँ तो मरने-जीने का सवाल है और तुम अक्ल की बातें कर रहे हो !’’ उसके गालों पर आँसू लुढ़कने लगे। उसने दौड़कर बाबा के हाथ की हँसिया पकड़ ली और छीनने लगी।
बाबा ने समझाया, ‘‘देखो बेटा, मैं तुमसे ज्यादा जानता हूँ कि नन्हें सूअरों को कैसे पाला जाता है। कमज़ोर बच्चे बड़ी परेशानी पैदा करते हैं। बस जाओ, अब भाग जाओ !’’
‘‘लेकिन यह बुरी बात है, बाबा !’’ सीता रोती हुई बोली, ‘‘इसमें सूअर के बच्चे का क्या दोष है कि वह छोटा पैदा हुआ ? कोई दोष दीखता है तुम्हें ? मैं ही जब पैदा हुई थी तब अगर बहुत छोटी और कमजोर होती तो क्या तुम मुझको मार डालते ?’’
बाबा ने उसकी ओर प्यार से मुस्कराकर कहा, ‘‘नहीं, कभी नहीं। लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है। नन्ही बेटी अलग चीज़ होती है और वह सूअर का कमज़ोर बच्चा अलग चीज़ है।’’
‘‘लेकिन मुझे तो इसमें कोई फर्क नहीं लगता!’’ सीता ने बाबा के हाथ की हँसिया छीनने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘यह तो बहुत ही भयानक अन्याय है, बाबा!’’
बाबा का चेहरा विचित्र भावों से आच्छादित हो गया। वह स्वयं अपने में ही रुआँसा-सा हो आया।
‘‘ठीक हैं !’’ अन्तत: बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा, तुम तो अब घर चलो, मैं उस मरकुट को लेकर आता हूँ। अब तुम्हें ही उसे शीशी से दूध पिलाना होगा, बच्चों की तरह। तभी तुम जानोगी कि इस तरह के सूअर के बच्चे से कितनी परेशानी होती है।’’
आधे घण्टे बाद जब बाबा लौटे तो उनकी बग़ल में एक दफ्ती का डिब्बा दबा हुआ था। सीता अन्दर उस वक्त अपने कपड़े बदल रही थी। रसोई में सुबह का नाश्ता तैयार हो चुका था। तले हुये चने और चाय की महक फैल रही थी। दीवारों की सीलन और चूल्हे की लकड़ी के सुलगते हुये धुएँ की महक हवा में भरी हुई थी।
बाबा ने कहा, ‘‘इसे सीता के ही खटोले में डाल दो।’’
सीता की माँ ने उस डिब्बे को सीता के खटोले में ही रख दिया। बाबा ने आँगन में आकर पानी से अपने हाथ धोए और अंगोछे में पोंछ लिए। सीता धीरे-धीरे कोठरी से बाहर आयी। रोने से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। अचानक दफ्ती का डिब्बा हिलने-डुलने लगा और फिर उसमें से चिचियाने की आवाज़ आयी। सीता ने अपने बाबा की ओर देखा और लपककर डिब्बे का ढकना उठा लिया। उसके अन्दर सूअर का ताजा पैदा हुआ हुआ बच्चा सीता की ओर टुकुर-टुकुर ताकता हुआ बैठा था। वह सफेद था, सुबह की रोशनी उसके कानों पर पड़ रही थी और वे गुलाबी-से हो रहे थे।
‘‘अब यह तुम्हारा है !’’ बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ कि वेवजह मरने से बच गया। भगवान्, इस मूर्खता के लिए मुझे क्षमा कर !’’
सीता उस नन्हें-से सूअर के बच्चे की ओर से अपनी आँखें नहीं हटा पा रही थी। बच्चा बहुत खूबसूरत लग रहा था।
सीता ने जैसे अपने-आप ही कहा, ‘‘कितना सुन्दर लग रहा है ! बहुत ही खूबसूरत !’’
उसने डिब्बे को सावधानी से बन्द कर दिया। इसके बाद उसने अपने बाबा को प्यार किया और फिर अपनी माँ को और तब डिब्बे का ढकना दुबारा खोला। उसके अन्दर से बच्चे को बाहर निकालकर अपने गालों से सटा लिया।
इसी समय उसका भाई अन्दर आया। वह कई हथियारों से लैस था-एक हाथ में गुलेल थी और दूसरे में छड़ी और कमर में लकड़ी की धज्जी की बनाई हुई तलवार।
‘‘वह क्या है ?’’ अप्पू ने ललकारा, ‘‘सीता के हाथ में क्या है ?’’
‘‘उसका एक मेहमान है !’’ माँ ने कहा, ‘‘अप्पू, तू हाथ धो ले और मुँह भी। कितनी धूल लग रही है !’’
‘‘लाओ मैं देखूँ !’’ अप्पू ने अपनी गुलेल रखते हुये कहा। फिर नज़दीक से देखकर बोला, ‘‘अरे, यह भी कोई सूअर है ! इसी मरियल को सूअर कहते हैं ! वाह, बहुत ही बढ़िया नमूना है सूअर का ! यह तो सफेद चूँहे के बराबर है।’’
‘‘अप्पू मुँह-हाथ धो ले और नाश्ता कर ले आकर!’’ माँ ने कहा, ‘‘फिर तुझे स्कूल भी तो जाना होगा।’’
‘‘बाबा, क्या तुम मुझे भी एक बच्चा नहीं दोगे?’’ अप्पू ने कहा।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book